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Writer's picture Punit Horo

9 TH AUGUST THE INTERNATIONAL DAY FOR INDIGENIOUS PEOPLE

Updated: Aug 16, 2022

तेईस दिसंबर 1994 को यूनाइटेड नेशन्स आर्गेनाईजेशन रेजुलेशन नंबर 49 / 214 पास कर 9 अगस्त को इंटरनेशनल इंडीजीनियस डे मनाने का सिद्धांत लिया।


साल 1982 यूनाइटेड नेशन्स आर्गेनाईजेशन ने यूनाइटेड नेशन्स ग्रुप ऑन इंडीजीनियस पॉपुलेशन नाम की सब - कमेटी का गठन मूल निवासियों के मानवाधिकारों को लागू करने और इसके संरक्षण के लिए किया।


उदेस्य था : मानवाधिकारों की सुरक्षा और इसको बढ़ावा देना


आखिर इसकी जरुरत क्यों आ पड़ी ;


सारी दुनिया के इंडिजिनियस पीपल या मूलनिवासी प्रकृति पर निर्भर शील हैं। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति जंगल के प्रोड्यूस करते हैं। जंगल की तलहटी पर जमीन समतल कर खेती बारी करते शांति से रहते हैं।


1760 से 1820 और 1840 के दशकों में अमेरिका और यूरोप में इंडस्ट्रियल रेवोलुशन का दौर था।

जंगल पहाड़ों से खनिज निकले जा रहे थे। कल कारखाने खड़े किये जा रहे थे। इस प्रोसेस में मूलनिवासियों का विस्थापन का सिलसिला चल पड़ा। मूल निवासियों को उनके सदियों पुराने निवास से हटाया जाने लगा। आधुनिकता की इस दौड़ में सभ्य समाज उनकी न परवाह करता न ही उनकी एक सुनता था।


एक तरफ आधुनिक सभ्य समाज तरक्की करता जा रहा था दूसरी तरफ मूलनिवासी अपने शर्मीले और सीधे स्वभाव के कारण नये माहौल में अपने आप को अनफिट पा रहे थे। पुराने जीवन शैली की तलाश में और भी सुदूर जंगलों की ओर धकेल दिये जाने लगे। वर्षो से बनायी समतल जमीन आधुनिकता और इंडस्ट्रियल रेवोलुशन की बलि चढ़ता गया।


यह प्रोसेस यहीं थमा नहीं आज भी मूलनिवासी इंडस्ट्री , डैम , रिज़र्व फारेस्ट के लिये विस्थापित किये जा रहे हैं। मूल निवासियों के साथ ऐसे में ज्यादतियां होना स्वाभाविक है।


हमारे देश में भी स्थिति भिन्न नहीं है। अंग्रेज व्यापार करने को आये और हम पर राज कर बैठे। अंग्रेजों को मूल निवासियों की भाषा नहीं आती थी न ही मूल निवासियों को उनकी। ऐसे में उनको स्थानीय जमींदार और राजाओं पर निर्भर होना पड़ा। अंग्रेजों , स्थानीय\राजाओं और जमींदारों के द्वारा मूल निवासियों पर अत्याचार होते थे। उन पर लगान का बोझ लाद दिया गया जंगलों पर सदियों के स्वामित्व पर प्रतिबंध लगना शुरू होने लगा। छल कपट से उनकी उपजाऊ जमीन जमींदारों के पास गिरवी पड़ने लगी। जमीन छीनने लगी।


छोटानागपुर में मुंडाओं और संथाल परगना में संथालों की आबादी बहुतायत से थी।


अंग्रेजो और जमींदारों के अत्याचार के विरोध में छोटा नागपुर में मुंडा सरदारों द्वारा सशस्त्र सरदारी आंदोलन शुरू हो गया। उसको शांत करने के लिए छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट 1968 पास किया गया और उनको कुछ राहत मिला।


1857 के सिपाही विद्रोह को आजादी की पहली लड़ाई के रूप में जाना जाता है। लेकिन इसके पहले\साल 1855 में सिध्हू , कानू , चाँद और भैरव संथाल भाइयों ने अंग्रेजो के विरोध सशस्त्र विद्रोह कर दिया था। वे भी जंगल और जमीन पर अपना अधिकार बनाए रखना चाहते थे। इसे संथालों का हूल के नाम से जाना जाता है।

विद्रोह को दबाने अंग्रेजो को छह सात महीने लग गये। फिर पास हुआ संथाल परगना सेटलमेंट एक्ट 1872 .


इतना होने पर भी जमींदारों का शोषण काम नहीं हुआ. 1899 - 1900 में भगवान बिरसा मुंडा ने भी छोटानागपुर में अंग्रेजों के विरोध में सशस्त्र आंदोलन छेड़ दिया। जिसे मुंडाओं के उलगुलान के नाम से आज भी याद किया जाता है।


1908 में संशोधित छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट पास किया गया। इस कानून के अनुसार मूल निवासियों की जमीन किसी नॉन ट्राइबल को ट्रांसफर नहीं की जा सकती है1949 के संथाल परगना टेनेंसी एक्ट में इन प्रावधानों का संथाल परगना में भी लागू किया गया।


इतिहास के इन्ही बैकड्रॉप के कारण हमारे संविधान में दो महत्वपूर्ण अनुच्छेद को शामिल किया गया है।


5 शेड्यूल - आदिवासी मेजोरिटी एरिया इन टेन नॉन आदिवासी स्टेट्स

6 शेड्यूल - नार्थ ईस्ट के चार राज्य असम , मेघालय , त्रिपुरा और मिज़ोरम


इसमें प्रावधान है ;

  • अलटरनेट एंड स्पेशल गवर्नेंस मैकेनिज्म फॉर सर्टेन सेडुल एरिया इन मेनलैंड एंड सर्टेन ट्राइब्स एरियाज ऑफ़ नार्थ ईस्ट।

  • जैसे कि एक ट्राइबल एडवाइजरी कमिटी का गठन जिसमे आदिवासी सदस्य होंगे। परम्परागत ग्राम सभा को प्राथमिकता देना आदि।


आज हमें यह विश्लेषण कर देखना पड़ेगा की क्या मूलनिवासियों पर अत्याचार अविचार खत्म हो चूका या फिर नये स्वरुप में मौजूद हैं।


मेरे विचार से तो अब भी वैसी ही परिस्थितियां बनी हुई है जिसके विरोध में हूल और उलगुलान हमारे पूर्वजों ने की थी। शायद विश्व सभ्य समाज का भी ऐसा ही मत हो जिस कारण उन्हें हमें यह ध्यान दिलाने की जरूरत महसूस हुई , कि मूल निवासियों के मानवाधिकारों की रक्षा और सुरक्षा को ध्यान में रख इंटरनेशनल इंडीजीनियस डे मनाया करें।


आज हम ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से जूझ रहे हैं। सभी का मानना है की जंगल की बड़े पैमाने पर कटाई इनके लिए एक प्रमुख कारन है। पेड़ लगाने के सरकारी प्रयास सफल नहीं हो पा रहे हैं। मूलनिवासी स्वभाव से प्रकृति के करीब रहते हैं। यदि इनको फोरस्ट्रेशन के अभियान में शामिल किया जाय , इनको हिस्सेदारी दी जाय तो समस्या का समाधान हो सकता है।


झारखण्ड के दो ट्राइबल एक्टिविस्ट का उल्लेख करना चाहूंगा;


जमुना टुडू और स्टेनिस्लॉस लॉर्डुस्वामी पॉपुलारली नोन एज स्टेन स्वामी।


जमुना टुडू ईस्ट सिंहभूम जिला के चाकुलिया के मुटुरकहम गांव की है। . उसने अपने गांव की महिलाओं का एक जथा बना रखा है जो की 50 हेक्टेयर जंगल की रक्षा करती हैं। ये महिलाएं पेड़ों को राखी बांधती हैं। जंगल माफियों से पेड़ों का काटे जाने से बचाती हैं। इनसे लिए उनको नीति आयोग से - वोमेन ट्रांसफॉर्मिंग अवार्ड से नवाजा गया है। महामहिम राष्ट्रपति स्वर्गीय प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रपति भवन बुला कर उनको सम्मानित भी किया है। साल 2013 में उन्हें गॉडफ्रे फिलिप्स ब्राव्हेरी अवार्ड - अंडर एक्ट ऑफ़ सोसल करेज दिया गया।


स्टेन स्वामी के नाम से आप लोग परिचित तो होंगे ही। वे एक रोमन कैथोलिक प्रीस्ट - इन जेसुइट आर्डर एवंग ट्राइबल राइट एक्टिविस्ट थे। वे चाईबासा, झारखण्ड के लुपुंगुटू स्कूल में पढ़ाया करते थे। और आदिवासियों को करीब से जानते समझते थे। उन्होंने सोशियोलॉजी में फिलीपीन से मास्टर डिग्री हासिल की थी। उस दौरान उन्होंने मूल निवासियों के बहुत सारे आंदोलन देखे थे।


स्टेन स्वामी इंडियन सोशलॉजी इंस्टिट्यूट बैंगलोर के डायरेक्टर थे। रांची नामकुम के बगइचा नामक निवास से उनको अक्टूबर 2020 एन आई ए ने गिरफ्तार यु ए पी ए के अधीन कर लिया था। उन्होंने हमेशा ट्राइबल राइट को लागू करने की पैरवी की। वे विस्थापन कारी प्रोजेक्ट्स के खिलाफ थे। 1996 में जादूगोड़ा यूरेनियम माईनस के बृहत् डैम का जम कर विरोद्ध किया था। अंततः यह प्रोजेक्ट बंद हो गया। 2018 - 19 साल में झारखण्ड के खूँटी जिले में मूलनिवासियों परमपरिक पथलगड़ी आंदोलन में भी उनका सक्रिय समर्थन था।

उनको एक कम्युनिस्ट एक्टिविस्ट करार किया गया और भीमा कोरेगाव महाराष्ट्र में हुई हिंसा फ़ैलाने का बारह और सोशल एक्टिविस्ट के साथ आरोपी बनाया गया। मेडिकल ग्राउंड पर जमानत भी नहीं दी गयी न ही कोई चार्ज शीट दाखिल की गयी। आखिर में जेल कस्टडी में रहते उनकी मौत हो गयी।





अपनी गिरफ़्तारी के दो दिन पहले उन्होंने कहा था ;


I AM NOT SILENT SPECTATOR BUT THE PART OF THE GAME , AND READY PAY THE PRICE WHATEVER IT BE.



विश्व मूलनिवासी दिवस केवल एक आयोजन मात्र न रह जाय। वरण “ लिविंग नो वन बिहाइंड “.के सिद्धांत के साथ , समाज के किसी भी तबके को पीछे न छोड़ते हुए , सभी साथ साथ मिलकर आगे बढ़ें।


पुनीत होरो



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